हाल ही में बनारस से दिल्ली-बंगलोर की ट्रेन यात्रा के दौरान पढ़ी ये विशुद्ध इलाहाबादी अवधी में लिखी कविता.
कस में, हीरालाल!
कहौ कयिसे हौ?
कयिसा चल रहा है तुम्हारा कार-बार?
पिराथे का अबौ ऊ 'कँड़हा' दांत?
अबहिन से छोड़े लगेव हियाव?
अबहिन तो बाकी है आधा दरियाव!
सितम्बर माह की 'नया ज्ञानोदय' में छपी कविता संग्रह "कस मे, हीरालाल" की पुस्तक समीक्षा से.
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